प्रेस कानून
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Abstract
वर्तमान समय में प्रेस को लोकतन्त्र का चौथ स्तम्भ कहा जाता है। लेकिन राजतन्त्र के तीन स्तम्भों की भाँति चौथा स्तम्भ यानी प्रेस सरकार के न तो अधीन है और न ही सरकार के आदेशों के अन्तर्गत स्थापित तन्त्र। वस्तुतः यह जनता का स्वयं निर्मित और स्थापित स्तम्भ है। दरअसल प्रेस के कुछ नैतिक कर्तव्य हैं और साथ ही दायित्व भी, अतः इसे जनहित का सबसे अहम संरक्षक तन्त्र स्वीकार किया गया है। हम जानते हैं कि हमारे देश की कानून-व्यवस्था का प्रभाव किसी भी समाचार-पत्र और पत्रकार पर उसी तरह पड़ता है जैसे एक सामान्य नागरिक पर पड़ता है। हमारा देश लोकतन्त्र में विश्वास करता है। एक लोकतान्त्रिक देश मंे भी सभी को समान अधिकार होता है । यहाँ एक पत्रकार और नागरिक को अभिव्यक्ति की समान स्वतन्त्रता मिलती है। यह अलग बात है कि इस स्वतन्त्रता के प्रयोग में एक सामान्य नागरिक से अधिक दायित्व एक पत्रकार का होता है। इसका कारण यह है कि एक पत्रकार की अभिव्यक्ति की पहुँच ज्यादा विस्तृत हाते ी है। एक सामान्य व्यक्ति भी अपने विचार प्रकट करता है और प्रेस भी अपने विचारांे को प्रकट करती है। विचारों को प्रकट करना सभी को लोकतान्त्रिक अधिकार हाते ा है। लेकिन संविधान से बाहर कोई नहीं जा सकता। संविधान की उपेक्षा कर मनमाने ढंग से टीका-टिप्पणी करना उचित नहीं। प्रेस को इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है। प्रेस की कुछ जिम्मेदारियाँ होती हैं, जिनसे वह आँखें नहीं चुरा सकती। संविधान के अनुच्छेद-19 के द्वितीय खण्ड में प्रेस से सम्बन्धित सभी प्रतिबन्धों को परिभाषित किया जाता है। भारतीय संविधान अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और वाक् स्वन्त्रता दोनों को ही केन्द्र बिन्दू मानकर चलता है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि बोलने की आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, एक आजादी को पसन्द करने वाले समाज का अधिकार है। इसका अर्थ यह भी है कि समाज के हर नागरिक को जानकारी लेने-देने और उसे समाज में प्रसारित करने का पूर्ण अधिकार है। लेकिन इस अधिकार का यह मतलब कतई नहीं है कि इस अधिकार का कोई गलत और नाजायज फायदा उठाए। अगर ऐसा होता है तो कानून ऐसे किसी भी अधिकार पर पाबन्दी भी लगा सकता है। सामान्य नागरिक का ऐसा कोई भी अधिकार जिससे समाज को फायदा पहुँचने की बजाए नुकसान पहुँचने की सम्भावना हो तो माननीय उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय अपने विवेक के आधार पर ऐसे अधिकार पर प्रतिबन्ध लगा सकते हैं। एक बात जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, वह यह कि आपात स्थिति में ऐसे किसी अधिकार की सांविधानिक गारन्टी की सुरक्षा के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। अतः यदि देश मंे आपातस्थिति की सम्भावना बढ़ती है तो वाक् स्वातर्न्त्य और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर कानूनी और सांविधानिक तौर पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है। प्रेस काउंसिल अधिनियम, 1965 के अनुसार प्रेस की स्वतन्त्रता की रक्षा हो तथा समाचार समितियों और साथ ही समाचार पत्रों के स्तर में गिरावट न आने पाए, उनके स्तर में उन्नति हो। प्रेस की स्वतन्त्रता को आघात पहुँचाने वाली कई स्थितियाँ हो सकती हैं। इनका ध्यान रखना आवश्यक होता है। जहाँ तक प्रेस की स्वतन्त्रता का सवाल है, उस पर किसी भी प्रकार के तनाव, दबाव आदि चाहे यह प्रभाव और दबाव किसी भी रूप में क्यों न हो, यह सब प्रेस काउंसिल के क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत आता है। अगर प्रबन्ध-व्यवस्था की तरफ से कोई भी हस्तक्षेप हाते ा है, चाहे वह सम्पादक के साथ हो, या किसी ओर के साथ, तो यह प्रेस की स्वतन्त्रता पर खतरा होता है। ऐसे में प्रेस काउंसिल का दायित्व बन जाता है कि ऐसे किसी भी मामले की जाँच करे और प्रेस की स्वतन्त्रता के लिए हर सम्भव प्रयास करे। लेकिन इस बात का ध्यान रखना भी आवश्यक होता है कि बेशक प्रसे सरकारी प्रभाव से बाहर क्यों न हो लेकिन यदि वह कानूनी सीमाओं का उल्लंघन करती है तो प्रेस की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्धों का प्रावधान भी है। भारत का संविधान इसकी स्वीकृति देता है। पत्रकारिता से जुड़े हुए किसी भी व्यक्ति को इस बात का विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता होती है। पत्रकारिता से जुडे किसी भी शख्स को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उसके किसी कृत्य से न्यायालय की अवमानना नहीं होनी चाहिए। न ही किसी का अपमान हो अथवा किसी भी प्रकार की मानहानी की सम्भावना न होने पाए। कॉपीराइट ऐक्ट का ध्यान भी रखा जाना आवश्यक होता है अन्यथा कानून में इसके लिए उचित दण्ड का प्रावधान है। मानहानि किसी भी पत्रकार को मानहानि के कानून से सावधान रहने की अत्यन्त आवश्यकता होती है। उसे यह ध्यान रखना पड़ता है कि उससे किसी भी प्रकार से किसी की मानहानि न होने पाए। यदि ऐसा होता है तो भारतीय दण्ड संहिता में इसके लिए कठोर सजा का प्रावधान रखा गया है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 500 के अनुसार इसके लिए दो वर्ष तक क कारावास की सजा का प्रावधान है।