हिन्दी साहित्य और पर्यावरणीय संवेदना
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Abstract
आदिम युग से ही मनुष्य और प्रकृति का रिश्ता चोली-दामन का रहा है। वह प्रकृति से ही पैदा हुआ है और प्रकृति का ही सर्वोत्तम विकास है। मनुष्य के माध्यम से प्रकृति स्वयं को ही व्यक्त करती है। मनुष्य और सभ्यता का विकास भी प्रकृति के गोद में बैठकर हुआ है। प्रकृति से संघर्ष, प्रकृति का अनुकूलन और फिर प्रकृति से ही प्रेम मानव जाति के समस्त इतिहास का विराट सत्य और निष्कर्ष है। अंतःप्रकृति और बाह्यप्रकृति, मानव-प्रकृति और मानवेत्तर प्रकृति की परस्परता मंे ही सृष्टि का सौंदर्यमूलक आधार रहा है। तो फिर मनुष्य की भाँति साहित्य प्रकृति से अछूता कैसे रह सकता है? जिस प्रकार मानव शरीर प्रकृति से अलग नहीं हो सकता, उसी प्रकार साहित्य भी प्रकृति से मुक्त नहीं हो सकता। प्राकृतिक एवं पर्यावरणीय संवेदना ही मानवीय एवं साहित्यिक संवेदना को निर्मित करते हैं। साहित्यिक उपमान, प्रतीक बिम्ब, रूप आदि सभी कुछ प्रकृति से ही लिए जाते हैं। कहते हैं कि रोमैंटिसिज़्म के दौर में कविता कहने की प्ररे णा कवियों को प्रकृति से मिली थी। उनके प्रकृति-प्रेम से ही देश-प्रेम की भावना उत्पन्न हुई; प्रथम रश्मि के आगमन की सूचना ने ही उसे भावप्रकाशन के एक नये मार्ग की ओर अग्रसर किया। सामाजिक और राष्ट्रीय पराधीनता के दौर में व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन दोनों को आगे बढा़या। छायावादी काव्य सौंदर्य का एक बड़ा कारण साहित्यिक संवेदना और पर्यावरणीय संवेदना के बेजोड़ संतुलन एवं व्यापक सर्जनात्मक प्रयोग ही है। कविगुरू रविन्द्रनाथ टैगोर के चित्रों की विराटता का रहस्य भी प्रकृति की विराटता के बोध का साक्षात्कार ही है। कला समेत जीवन के सभी क्षेत्रों में संकीर्णता पर प्रहार करते हुए छायावादी काव्य-यात्रा लघुता से विराटता की ओर बढ़ती है। जो आगे चलकर प्रगतिवाद के दौर मंे किसान और मजदूरों के गाय-बैल और खेत-खलिहान, धूल-मिट्टी, हवा-पानी, बादल-राग के रूप में मानवीय व साहित्यिक संवेदना की युगलबन्दी पर्यावरणीय संवेदना के साथ दिखलाई पड़ती है। कविता का कैनवास और कवियों के वक्षस्थल को इतना विशाल बनाया गया जिसमें सभी प्राकृतिक पदार्थों के लिए जगह हो। इस तरह हमें प्रकृति और साहित्य के बीच एक अटूट एवं प्रगाढ़ संबंध उन बड़े काव्यांदोलनों की सफलता के पीछे दिखलाई पड़ता है। किन्तु यह दुर्भाग्य की बात है कि आज प्रकृति और साहित्य के बीच का यह संबंध कुछ टूटता, कुछ बिखरता सा दिखलाई पड़ता है। मॉल, मल्टीप्लैक्स, शॉपिंग कॉम्प्लेक्स, बड़ी-बड़ी बिल्डिंगों और विकास की अंधी दौर में जहाँ बिल्डिंगंे तो बड़ी होती जा रही हैं लेकिन इंसान और इंसानियत छोटी हो रही है। पर्यावरणीय संकट के साथ मनुष्य और समाज के पर्यावरण का भी संकट बढ़ा है। अंधाधुंध वृक्षों का कटना, वाहनों का लगातार बढ़ना, बेलगाम जलवायु - ध्वनि प्रदूषण, उदाहरण के लिए हम यमुना का हाल देख सकते हैं, सांस लेने के लिए स्वच्छ हवा ढूँढ़नी पड़ती है, ट्रैफिक का शोर आपको बेचौन करता रहता है। यांत्रिक संस्कृति, यांत्रिक संवेदना के साथ मनुष्य का निरंतर यंत्रवत होते जाना पर्यावरणीय संवेदना से निरंतर उसके विमुखता एवं उदासीनता का ही परिणाम है। इससे जो मनुष्य निर्मित होता है, उसकी जो संवेदना निर्मित होती है, उसे ही साहित्य निबद्ध करता है, उस मनुष्य की छवि को साहित्य के कैमरे में कैद करता है।